Type Here to Get Search Results !

कोई टाइटल नहीं

 


एक लंबे अर्से से दुनिया भर के वैज्ञानिक पेड़-पौधों से सीख लेकर और खास तरह के प्रोटीनों की मदद से प्रकाश संश्लेषण की पूरी जैव रासायनिक प्रक्रिया (बायोकेमिकल प्रोसेस) को लैब में दुहराकर ऊर्जा के एक कारगर स्रोत की तलाश में जुटे हुए हैं. ऊर्जा पैदा करने के उद्देश्य से प्रयोगशाला में कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण करवाने की कोशिशों के नतीजे बेहद उत्साहित करने वाले रहें हैं.

Source: VOICE OF INDIALast updated on: July 13, 2021, 11:57 AM IST
शेयर करें:FacebookTwitterLinked IN
पेड़-पौधों से सीख लेकर निकलेगा ऊर्जा संकट का समाधान?


म इंसानों और पेड़-पौधों में जमीन-आसमान का अंतर है. इंसान ऐसे बहुत से काम कर सकता है जो एक पेड़ या पौधा नहीं कर सकता. हम देख-सुन सकते हैं, चल-फिर सकते हैं, आपस में बातचीत कर सकते हैं और किसी भी चीज को छू सकते हैं. लेकिन पौधों में एक ऐसी विशेषता भी है, जो हमारे अंदर नहीं है. वे सीधे सूर्य से ऊर्जा बना सकते हैं. पेड़-पौधों द्वारा सूर्य के प्रकाश को सीधे इस्तेमाल कर ऊर्जा बनाने की इस प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण या फोटो सिंथेंसिस के नाम से जाना जाता है.

एक लंबे अर्से से दुनिया भर के वैज्ञानिक पेड़-पौधों से सीख लेकर और खास तरह के प्रोटीनों की मदद से प्रकाश संश्लेषण की पूरी जैव रासायनिक प्रक्रिया (बायोकेमिकल प्रोसेस) को लैब में दुहराकर ऊर्जा के एक कारगर स्रोत की तलाश में जुटे हुए हैं. ऊर्जा पैदा करने के उद्देश्य से प्रयोगशाला में कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण करवाने की कोशिशों के नतीजे बेहद उत्साहित करने वाले रहें हैं. प्रगति की रफ्तार यह है कि इस दिशा में हर साल कोई न कोई बड़ी सफलता मिल ही जाती है.

वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि आने वाले 10-15 वर्षों में कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण तकनीक मुख्यधारा में आ जाएगी और इससे उत्पन्न ऊर्जा या बिजली से हम दैनिक जीवन के विभिन्न क्रियाकलाप संपन्न कर सकेंगे.
नहीं होगा पर्यावरण को कोई नुकसान
कृत्रिम प्रकाश संश्लेषण से बनी ऊर्जा स्वच्छ ईंधन या ग्रीन एनर्जी की दुनिया में एक बड़ी क्रांति ला सकता है. वैज्ञानिकों के मुताबिक इस तरह के स्वच्छ और कुशल ईंधन का भंडारण भी किया जा सकेगा, जिससे हम अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति कर पाएंगे एवं ऊर्जा संकट का ठोस समाधान भी निकाल पाएंगे. यह सभी जानते हैं कि कोई भी देश तब तक उन्नति नहीं कर सकता जब तक उसके पास ऊर्जा के पर्याप्त संसाधन न हों.

धरती पर कोयले और पेट्रोलियम के भंडार सीमित हैं, ये भंडार ज्यादा दिनों तक हमारी ऊर्जा जरूरतों को पूरा नहीं कर सकते. और इससे प्रदूषण भी होता है, जिसका प्रभाव पृथ्वी के जीव जगत पर पड़ता है. लिहाजा, मोटे तौर पर हमारा सूर्य ऊर्जा का एक अक्षय और प्रदूषण रहित स्रोत है. आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि एक घंटे में सूर्य के प्रकाश के रूप में पृथ्वी पर इतनी ऊर्जा आती है कि उससे पूरी मानव जाति की एक साल की समस्त ऊर्जा जरूरतें पूरी की जा सकती हैं.
बदल सकता है ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियों का समूचा परिदृश्य
अमेरिका स्थित पर्ड्यू कॉलेज ऑफ साइंस में बायोफिजिसिस्ट और भौतिकी की प्रोफेसर यूलिया पुष्कर पौधों द्वारा सूर्य से सीधे ऊर्जा बनाने की प्रक्रिया को कॉपी करने के लिए दो-तीन वर्षों से गहन अध्ययन-अनुसंधान कर रही हैं. इस वक्त सौर ऊर्जा एवं पवन ऊर्जा ‘ग्रीन और क्लीन एनर्जी’ के प्रमुख स्रोत हैं. जहां सौर ऊर्जा में फोटोवोल्टाइक सेलों की अवश्यकता पड़ती है, वहीं पवन ऊर्जा में टर्बाइनों की दरकार होती है.

यूलिया पुष्कर के मुताबिक इन दोनों एनर्जी सोर्सेज के साथ-साथ आर्टिफ़िशियल फोटो सिंथेंसिस के तौर पर तीसरी संभावना को भी जोड़ने से ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी गतिविधियों का समूचा परिदृश्य ही बदल जाएगा. भारी-भरकम बैटरियों के बगैर ऊर्जा को आसानी से संग्रहित (स्टोर) करने की क्षमता मानव सभ्यता के लिए बेहद कल्याणकारी सिद्ध हो सकती है.

पर्यावरणीय प्रभावों और कई जटिल कारकों की वजह से फोटोवोल्टाइक सेलों और टरबाइनों के इस्तेमाल की अपनी कुछ सीमाएं भी हैं. फोटोवोल्टाइक का मतलब है प्रकाश संवेदी सेमीकंडक्टरों से निर्मित लाइट सेलों की मदद से सूर्य के प्रकाश को सीधे ऊर्जा या बिजली में तब्दील करना. बिजली उत्पादन में फोटोवोल्टाइक तकनीक अब तक बहुत ज्यादा कारगर नहीं रही है. यह पृथ्वी पर आने वाले सौर प्रकाश का महज 20 फीसदी हिस्सा ही ग्रहण करने में समर्थ है.

वहीं, टर्बाइन ऐसे इंजन को कहते हैं जो काइनेटिक या पोटेन्शियल एनर्जी को ग्रहण कर स्वयं घूमती है और साथ ही अपने शाफ्ट पर इन्स्टाल अन्य उपकरणों (जैसे इलैक्ट्रिक जनरेटर) को भी घुमाती है. पवन चक्की और जल चक्की (वॉटर व्हील) आदि टर्बाइन के प्रारंभिक रूप हैं. टर्बाइन से उत्पन्न ऊर्जा की रूपांतरण क्षमता बेहद कम होती है और यह काफी हद तक भौगोलिक स्थितियों पर निर्भर करता है.

यूलिया पुष्कर का दावा है कि कृत्रिम फोटो सिंथेंसिस के इस्तेमाल से इनमें से कई खामियाँ दूर हो जाएंगी. हालांकि, फोटो सिंथेंसिस ‘फोटोवोल्टाइक’ से कहीं ज्यादा जटिल प्रक्रिया है, जिसकी मदद से पौधे सूर्य की रोशनी और पानी के अणुओं को ग्लूकोज के रूप में ऊर्जा में बदल देते हैं. इस पूरे प्रोसैस को संपन्न करने के लिए उन्हें प्रोटीन, क्लोरोफिल, एंजाइम और मेटल्स की आवश्यकता पड़ती है.


कृत्रिम फोटो सिंथेसिस में वैज्ञानिक प्रकाश के प्रति संवेदनशील प्रोटीन मॉलिक्युल्स को सूर्य की रोशनी में इलैक्ट्रिक चार्ज में तब्दील करने का प्रयास करते हैं. जैसा कि हम जानते हैं फोटोवोल्टाइक तकनीक सौर ऊर्जा का महज 20 फीसदी हिस्सा ही ग्रहण कर पाती हैं वहीं फोटो सिंथेंसिस 60 प्रतिशत सौर ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में तब्दील करने में सक्षम है.

बायोनिक लीफ एनालॉग बनाकर होगा ऊर्जा संकट का समाधान?
वैज्ञानिकों के मुताबिक कृत्रिम फोटो सिंथेसिस की कोई बुनियादी भौतिक सीमा नहीं है. पुष्कर का कहना है कि ‘हम एक ऐसे सिस्टम की कल्पना कर सकते हैं जो 60 प्रतिशत तक कारगर हो. यह सिस्टम उन्नत होने पर 80 प्रतिशत तक प्रभावी हो सकता है.’ पुष्कर की टीम ने फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया को नकल करने के लिए एक बायोनिक लीफ (पत्ता) एनालॉग बनाया है. बायोनिक लीफ सूर्य के प्रकाश को स्टोर करता है और पानी के अणुओं का विभाजन करके हाइड्रोजन गैस उत्पन्न करता है.

हाइड्रोजन को ईंधन सेलों के माध्यम से ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है या प्राकृतिक गैस जैसे अन्य ईंधनों में मिक्स किया जा सकता है. और तो और हाइड्रोजन को वाहनों से लेकर घरों तक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, प्रयोगशालाओं और अस्पतालों तक हर चीज को बिजली देने के लिए ईंधन सेल्स में तब्दील किया जा सकता है.

वैज्ञानिकों के मुताबिक इस तकनीक से ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में भी सहायता मिलेगी, बड़े पैमाने पर अनाज की खेती के लिए जमीन भी उपलब्ध होंगे, क्योंकि तब जैव ईंधन या बायो फ्यूल के लिए मक्के और गन्ने की बड़े पैमाने पर खेती करने की आवश्यकता नहीं रहेगी. गौरतलब है कि इस वक्त दुनिया के कुल कृषि योग्य भूमि में से चार प्रतिशत भू-भाग पर बायो फ्यूल के लिए खेती होती है. सबसे बड़ी बात यह है कि यह तकनीक तेल के कुओं की जरूरत समाप्त कर सकती है. पृथ्वी को लगातार गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से भी बचाएगी.


कृत्रिम फोटो सिंथेसिस पर किए गए अपने अनुसंधान को यूलिया पुष्कर ने ‘केम कैटालिसिस : सेल प्रेस’ जर्नल के हालिया अंक में प्रकाशित करवाया है. बहरहाल, कृत्रिम फोटो सिंथेसिस की कार्यप्रणाली भले ही पौधों के जैसी ही है, मगर टिकाऊपन के मामले में अभी पेड़-पौधों से काफी पीछे है. इस तकनीक को अभी परिपक्व होने में थोड़ा वक्त लगेगा. इस दिशा में हो रही प्रगति के मद्देनजर हम अगले 10-15 सालों में कमर्शियल बायोनिक लीफ प्लांट की उम्मीद कर सकते हैं. अस्तु
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए  किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.